Wednesday, October 27, 2010

भूल से भूल हो गयी.........

ऐसा लगता है की
ऐसा सा लगता हैं की
खुद ही खुद को खुद ही के हाथो से
निकलते देख रही हूँ
खुद ही के हाथो से
फिसलते देख रही हूँ ...

संभाले ना संभल रही हैं
बस जिंदगी का दिया और ....
बाटी धीरे धीरे जल रही हैं
धीरे धीरे जल रही हैं
धीरे धीरे जल रही हैं .........

खुद ही की डोर जो हाथ से सरकती सरकती ..
रोकना चाह उछाल लगायी ...
भागी दौड़ी सब जान लगायी ..
संभाले ना वोह तब संभलती ...बस सरकती सरकती ...
ना जाने कब ........

बस पतंग को ढीले पड़ते हुए देखा ..
गिरते हुए धीरे धीरे कट कर
खुद की पतंग मैं देख रही हूँ ....
फिर लगता की .............

जब बाती में ज़िन्दगी से लड़ने की शक्ति थी ...
जब डोर हाथो में संभल सकती थी
तब ही उस दीपक तले ....
सपनो की चादर बुन लेती तो अच था ...
तब ही उस पतंग को आकाश की
असीम ऊंची दुनिया से मिलवाती तो अच्छा था



आज हवा चलेगी ..और बाती का तेल जलने लगेगा ..
कभी वर्षा शायद बाती को ....समय निकलने का एहसास दिलाने लगे .......
आज शायद ...हवा रुख पलट ले ...
और मेरी पतंग ...को समय के आगे झुकने का एहसास दिलाने लगे ...
और मुझे मेरी नासमझी में छूटी हुई लगाम का एहसास दिलाने लगे ..

भूल से भूल हो गयी
पर समय तो बस चलता ही रहता हैं
चलता ही रहता हैं ....वोह अपनी रफ़्तार में ...
फिर आवाज लगा कर मुझे पूछता की
तुम पीछे क्यों रह गयी ...
तुम पीछे क्यों रह गयी ...


बस मैं यही कह पायी की
भूल से भूल हो गयी ............
भूल से भूल हो गयी ............

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